सांची के महान स्तूप का इतिहास :
History of Great Stupas of Sanchi :
|
Sanchi Stupa |
सांची नाम का कस्बा या ग्राम मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले में बेतवा नदी के किनारे स्थित है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से इसकी दूरी लगभग 46 किलोमीटर है और विदिशा से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर मध्य प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है। रायसेन जिला अपनी ऐतिहासिक विविधता और पुरातात्विक धरोहरों के लिए काफी प्रसिद्ध है।मध्य प्रदेश में कुल 3 स्थान यूनेस्को वर्ल्ड हेरीटेज में आते हैं इसमें दो स्थान रायसेन जिले के हैं। एक है भीमबेटका जो अपने प्रागैतिहासिक शैल चित्रों के लिए विख्यात है और दूसरा सांची जो अपने बौद्ध स्मारकों के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। तीसरा स्थान खजुराहो है जो छतरपुर जिले में स्थित है। हालांकि सांची की दूरी विदिशा से 10 किलोमीटर है इसलिए यह भ्रम हो जाता है यह विदिशा जिले में है। सांची वैसे तो बहुत ही छोटी सी जगह पर सांची ने दुनिया को इतना कुछ दिया है कि समस्त दुनिया सांची की ऋणी है और जिस कारण 1989 में सांची को यूनेस्को वर्ल्ड हेरीटेज का दर्जा दिया गया है। वह देन है भारत के मोर्य शासक सम्राट अशोक द्वारा निर्मित सांची के स्तूप।
It was originally commissioned by the Mauryan emperor Ashoka the Great in the 3rd century BCE. Its nucleus was a simple hemispherical brick structure built over the relics of the Buddha. It was crowned by the 'chhatra', a parasol-like structure symbolising high rank, which was intended to honour and shelter the relics.
|
साँची स्तूप |
|
साँची तोरण द्वार |
Sanchi is the center of a region with a number of stupas, all within a few miles of Sanchi, including Satdhara (9 km to the W of Sanchi, 40 stupas, the Relics of Sariputra and Mahamoggallana, now enshrined in the new Vihara, were unearthed there), Bhojpur (also called Morel Khurd, a fortified hilltop with 60 stupas) and Andher (respectively 11 km and 17 km SE of Sanchi), as well as Sonari (10 km SW of Sanchi). Further south, about 100 km away, is Saru Maru. Bharhut is 300 km to the northeast.
|
General view of the Stupas at Sanchi by F.C. Maisey, 1851 (The Great Stupa on top of the hill, and Stupa 2 at the forefront) |
किसी भी देश की ऐतिहासिक इमारतें वहां के इतिहास को दिखाती हैं। ऐतिहासिक इमारतें ऐसी होती है जो दुनिया भर के लोगों को वहां पर खींच लाती हैं और सांची के स्तूप भी उन्हीं धरोहरों में से एक है ।हालांकि यह स्तूप उन ऐतिहासिक इमारतों में शुमार नहीं है जैसे ताज महल या कुतुब मीनार है, परंतु इसकी अहमियत किसी भी प्रकार में किसी से कम नहीं हैं । वर्तमान में यहां अनेक छोटे-बड़े स्तूप स्थित है। चारों ओर हरियाली की चादर ओढ़े हुए यह स्तूप किसी को भी पहली नजर में अपनी और खींच लेते हैं। यह समस्त स्तूप एक पहाड़ी पर बने हुए हैं और यह पहाड़ी ही प्रेम ,शांति , विश्वास और साहस का प्रतीक है। सांची का स्तूप भारतीय इतिहास की सबसे प्राचीन पत्थरों से निर्मित संरचनाओं में से एक है जो आज भी अपने मूल स्वरूप में स्थित है। यहां पर मुख्य कुल 3 स्तूप है और यह देश के सर्वाधिक सुरक्षित स्तूपों में है।
|
200 रुपए के नोट पर साँची का फोटो है |
History of Sanchi Stupa :
सांची के प्राचीन ब्राह्मी अभिलेखों में इसका नाम काकनव या काकन्य मिलता है। श्रीलंका बौद्ध ग्रंथ महवंशम 5वीं सदी में चैत्यगिरी उल्लेख है। कहीं वेदिसगिरी नाम भी मिलता है। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के सांची अभिलेख में काकनादबोट नाम लिखा है। 7वीं सदी के अभिलेखों में बोट श्री पर्वत नाम लिखा है। भवभूती के मालती माधव में श्री पर्वत नाम आया है। ऐतिहासिक स्तूप का निर्माण मौर्य साम्राज्य के प्रसिद्ध शासक सम्राट अशोक द्वारा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में करवाया गया था।
|
साँची के तोरण द्वारों पर जातक कथायें |
|
साँची के तोरण द्वारों पर जातक कथायें |
सांची के स्तूप को सम्राट अशोक ने बौद्ध अध्ययन और शिक्षा केन्द्र के रूप में बनवाया था। सांची के स्तूप भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण का प्रतीक है। इस स्तूप के केंद्र में एक अर्ध गोलाकार ईटों का ढांचा बनाया गया था जिसमें भगवान बुद्ध के कुछ अवशेषों को रखा गया था। इसका निर्माण कार्य सम्राट अशोक की पत्नी महादेवी को सौंपा गया था जो विदिशा के व्यापारी की बेटी थी। सांची उनका जन्म स्थान था और उनके और सम्राट अशोक के विवाह का स्थान भी था। इन स्तूपों का निर्माण कार्य ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से 12वीं शताब्दी के मध्य तक चलता रहा तेरहवीं शताब्दी के बाद यह स्थान वीरान घने जंगलों में तब्दील हो गया।
|
साँची सूर्यास्त के समय |
स्तूप किसे कहते हैं ( what are stupas called ) :
|
साँची का मुख्य स्तूप |
स्तूप एक पवित्र बौद्ध स्थल होते हैं जिसे चेत्य भी कहा जाता है। इनका उपयोग पवित्र बौद्ध अवशेषों को रखने के लिए किया जाता है और वहां पर भगवान गौतम बुद्ध की पूजा आराधना की जाती है। ईसा पूर्व 483 में जब गौतम बुद्ध ने देह त्याग किया तो उनके शरीर के अवशेषों पर अधिकार के लिए उनके अनुयाई राजा आपस में लड़ने झगड़ने लगे। अंत में एक बौद्ध गुरु ने समझा-बुझाकर उनके शरीर के अवशेषों को राजाओं में वितरित किया और उन अवशेषों पर 8 स्तूपों का निर्माण किया गया। इस प्रकार गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद इन स्तूपों को बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार का प्रतीक माना गया। सांची के स्तूप दूर से देखने में साधारण अर्ध गोलाकार संरचना दिखती है लेकिन यदि आपको उसकी भव्यता , विशिष्टता और बारीकियां देखना है तो आपको सांची आना ही पड़ेगा। इसीलिए कई देशों से बड़ी संख्या में बौद्ध धर्मलंबी, पर्यटक , शोध करने वाले इस बेमिसाल संरचना को देखने आते हैं।
|
sanchi |
|
साँची का महा बौद्ध विहार |
सांची के स्तूप की खोज 1818 में एक ब्रिटिश अधिकारी जनरल टेलर ने की थी तब तक यह जन सामान्य की जानकारी में नहीं था। जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन मार्शल को इसके पुनर्निर्माण का दायित्व सौंपा । वर्ष 1912 से 1919 के बीच इन स्तूपों को फिर से उनके वर्तमान स्वरूप में खड़ा किया गया। चारों ओर से घनी झाड़ियों के बीच सांची के सारे निर्माण को पता करके उसका जीर्णोद्धार करना , मूल आकार देना बेहद कठिन कार्य था पर सर जॉन मार्शल ने इसे बखूबी किया।मुख्य स्तूप भारत के सबसे बड़े स्तूपो में है जिसकी ऊंचाई 21.64 मीटर और व्यास 36.5 मीटर है। मुख्य स्तूप के पास ही सम्राट अशोक का स्तंभ पाया गया है जिसमें ऊपर चार शेर है। वहां पर बड़ी संख्या में ब्राह्मी लिपि के शिलालेख भी पाए गए हैं। सर जॉन मार्शल ने वर्ष 1919 में इसे संरक्षित रखने के लिए एक पुरातत्व संग्रहालय की स्थापना की जिससे वर्तमान में सांची पुरातत्व संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया गया है। हालांकि सांची में भगवान गौतम बुद्ध द्वारा कभी भी दौरा नहीं किया गया फिर भी आज यह स्थान बौद्ध धर्म का एक प्रमुख धार्मिक केंद्र है।
|
साँची स्तूप |
मौर्य काल :
|
sanchi at sunset time |
सांची के प्राचीनतम स्मारकों के निर्माण का श्रेय मौर्य सम्राट अशोक को जाता है जिसने अपनी विदिशा निवासिनी पत्नी की इच्छा अनुसार सांची की पहाड़ी पर एक स्तूप एवं एक बिहार का निर्माण एवं एकाश्म स्तंभ स्थापित कराया था।मौर्य शासक सम्राट अशोक के समय तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इस स्तूप का निर्माण कराया गया। मुख्य संरचना काली ईटों से निर्मित की गई थी जो वर्तमान स्तूप के नीचे स्थित है। यदि आप मूल स्वरूप को देखना चाहते हैं तो यहां से लगभग15 किलोमीटर दूर सतधारा नामक स्थान पर उसी समय के कुछ स्तूप बने हुए हैं जिसमें उस समय की मूल काली इंटो को साफ-साफ देखा जा सकता है।
शुंग राजवंश:
|
Sanchi Stupa |
वास्तविक ईटों के स्तूप को बाद में शुंग शासन के समय में पत्थरों से ढंक दिया गया था। अशोका वादन के आधार पर यह कहा जाता है कि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इन स्तूपों में तोड़फोड़ की गई थी। कहा जाता है कि पुष्यमित्र शुंग ने स्तूपों को वास्तविक क्षति पहुंचाई थी और तोड़फोड़ की थी । बाद में उसके बेटे अग्निमित्र ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था बाद में शुंग के शासनकाल में ही इस स्तूपों को पत्थरों से सजाया गया फिर यह स्तूप अपने वास्तविक आकार से और भी ज्यादा विशाल हो गए। इस स्तूप में प्रस्तर की परत और रेलिंग लगाने का कार्य इसी समय में हुआ। स्तूपों का पुनर्निर्माण करते समय यहां चार द्वारों का निर्माण भी कराया गया। शुंग काल में सांची निकटतम स्थानों में अनेक स्मारकों का निर्माण हुआ था। भूमिस्थ वेदिका , सोपान वेदिका तथा हर्मिका का निर्माण भी इसी काल की देन है। स्तूप क्रमांक दो एवं तीन का निर्माण भी शुंग काल में हुआ था।
सातवाहन पीरियड :
|
Sanchi Stupa Toran Gate |
पहली सदी ईसा पूर्व में जब सातवाहन शासकों ने मालवा प्रदेश तक अधिकार कर लिया था तब स्तूप की चारों दिशाओं में भव्य कलात्मक तोरण का निर्माण हुआ। कहा जाता है कि चार द्वार और कटघरों का निर्माण सातवाहन शासन में किया गया। कलाकृतियां और द्वारों के आकार को सातवाहन शासक सातकर्णी ने निर्धारित किया था। इन द्वारों पर जातक कथाओं को दर्शाया गया है बौद्ध स्तूप को कोई शासकीय संरक्षण नहीं दिया गया था। पुरुष और महिलाएं दोनों भक्त मूर्तियों और स्तूपो की देखभाल के लिए सहायता करते रहते थे। यदि किसी स्थानीय व्यक्ति द्वारा पैसों की सहायता से वहां बुद्ध के जीवन से संबंधित किसी घटना को रेखांकित किया जाता था तो उसका नाम भी वहां लिखा जाता था जैसे कि बुद्ध के चरण चिन्ह, बोधि वृक्ष इत्यादि ।सांची के स्थानीय लोग बुद्ध से काफी हद तक जुड़े हुए थे। सांची के शिलालेख : सांची के स्तूप में बहुत से शिलालेख ब्राम्ही शैली में पाए जाते हैं। इनमें कुछ छोटे हैं और कुछ लोगों के दौरान से भी बनाए गए हैं ।वहां बने सभी शिलालेख वास्तुकला को प्रदर्शित करते है
|
साँची का स्तूप क्रमांक 03 |
|
Plan of the monuments of the hill of Sanchi, numbered 1 to 50. |
पहली सदी से 12 वी सदी तक का साँची का काल :
साँची के अगले शासक गुप्त थे जिन्होंने कई मंदिरो और मूर्तियों का निर्माण यहाँ करवाया। सबसे प्रमुख थे चन्द्रगुप्त द्वितीय जिनका एक शिलालेख भी यहाँ मिलता है। मंदिर 17 भारत के मंदिरो के इतिहास का प्राथमिक मंदिर है जो सपाट छत्त का है साधारण अलंकरण है। इसका गर्भगृह वर्गाकार है जो सम्भतः 5 वी सदी के प्रारम्भ का हो सकता है और बौद्ध भिक्षुणो के लिए बनाया होगा।
|
Sanchi inscription of chandrgupta II |
"The glorious Candragupta (II), (...) who proclaims in the world the good behaviour of the excellent people, namely, the dependents (of the king), and who has acquired banners of victory and fame in many battles"
|
sanchi temple 17 of gupta |
It may have been built for Buddhist use (which is not certain), but the type of which it represents a very early version was to become very significant in Hindu temple architecture. It consists of a flat roofed square sanctum with a portico and four pillars. The interior and three sides of the exterior are plain and undecorated but the front and the pillars are elegantly carved, giving the temple an almost 'classical' appearance. The four columns are more traditional, the octagonal shafts rising from square bases to bell capitals, surmounted by large abacus blocks carved with back-to-back lions.
Next to Temple 17 stands Temple 18, the framework of a mostly 7th-century apsidal chaitya-hall temple, again perhaps Buddhist or Hindu, that was rebuilt over an earlier hall. This was probably covered by a wood and thatch roof
|
sanchi temple 18 |
|
Temple 18 in 1861. |
सांची और विदिशा से प्राप्त सिक्कों तथा मथुरा शैली की मूर्तियों से ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र पहले कुषणों के अधीन रहा। गुप्त काल में सांची की पहाड़ी तथा विदिशा के समीप उदयगिरि में अनेक महान मंदिर और मूर्तियों का निर्माण हुआ। सातवीं सदी से 12 वीं सदी तक यहां मंदिरों एवं विहारों का निर्माण होता रहा। उसके बाद से लेकर 1818 ईसवी तक यह क्षेत्र गुमनाम हो गया।
|
Ruins of the Southern Gateway, Sanchi in 1875. |
|
Great Stupa, Eastern Gateway, in 1875. |
|
West Gateway in 1882. |
सन् 1818 में जनरल टेलर जो कि तृतीया मराठा युद्ध में ब्रिटिश अफसर था ने इन बौद्ध स्मारकों की पुनः खोज की,1822 में जनरल जॉनसन, जनरल कनिंघम और कैप्टन मैसी 1851, मेजर कोल 1881, सर जॉन मार्शल 1912 से 1919 तक यहां अन्वेषण उत्खनन और संरक्षण का कार्य कराया। 1881 तक कई लोगो ने इस स्तूप को धन की खोज में बहुत नुकसान पहुँचाया। तोरणा और वेदिका पर प्रथम और द्वितीय सदी ईसा पूर्व के अनेक दान अभिलेख भी उत्कीर्ण है। जातक कथाओं, बुद्ध के जीवन से संबंधित घटनाओं तथा अन्य प्रकरणों से उत्कीर्ण इन तोरणों का निर्माण प्रथम सदी ईसा पूर्व में हुआ था।
|
पांचवी सदी में चारो गटों पर बुद्ध की मूर्तिया लगायी गयी |
गुप्त काल में पांचवी छठी ईस्वी में तोरणों के सामने स्तूप से सटकर चार बुद्ध मूर्तियों की स्थापना की गई थी। इस स्तूप का व्यास 36.6 मीटर तथा इसकी ऊंचाई वेदिका तथा छत से छोड़कर 16.46 मीटर है। स्तूप के सबसे ऊपर के केंद्र में छत्र तथा इसके चारों ओर वर्गाकार हर्मिका है। मुख्य स्तूप से 45 मीटर उत्तर पूर्व दिशा में भुमिस्थ वेदिका , सोपान वेदिका तथा हर्मिका से युक्त स्तूप 3 का निर्माण द्वितीय सदी ईसा पूर्व में हुआ था। इसके कलात्मक तोरण भूमिस्थ वेदिका का निर्माण प्रथम सदी ईसा पूर्व हुआ था। प्रस्तर निर्मित मंजूषा पर ब्राह्मी लिपि के उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार इस स्तूप में बुद्ध के दो प्रमुख शिष्य सारी पुत्र तिस्य एवं महा मोद गलायान के अवशेष संग्रहित है।
|
sanchi stupa no 03 |
काष्ठ नमूने पर आधारित सांची की प्रस्तर वेदिका एवं तोरण काष्ठ से निर्मित निर्माण के रूपांतरण का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन पर समकालीन सामाजिक जीवन वनस्पति और वन्य जीव जंतुओं का सुंदर चित्रण है। स्तूप के दक्षिणी तोरण के निकट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तंभ 10 पर बौद्ध संघ में मतभेद उत्पन्न करने वाले भिछु एवम् साधिकायो को दंडित करने ब्राह्मी लिपि में सम्राट अशोक की एक आदेश भी उत्कीर्ण है। पांचवी सदी में गुप्त काल में निर्मित मंदिर 17 जिसकी छात्र समतल है तथा जिसका मंडप चार स्तंभों पर आधारित है, अपने ढंग का पूर्ण रूप से एक श्रेष्ठ उदाहरण है। इस मंदिर का मंदिर की वास्तुकला के क्रमिक विकास में महत्वपूर्ण स्थान है।मंदिर 45 एक ऊंचा विशाल मंदिर है, जिससे जुड़ा एक बिहार भी है ।यह उत्तर भारतीय शैली का एक विकसित मंदिर है। पहाड़ी पर लगातार अनेकों विहारों का निर्माण चलता रहा है। अपनी समृद्ध एवं उत्कृष्ट शिल्प एवं स्थापत्य कला हेतु सांची कला जगत में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
|
sanchi great Stupa |
1837 में ब्रिटिश जेम्स princep ने इसका वर्णन अपने लेखों में भी किया है। दान देने वाले लोगों और शिलालेखों को देखकर यह पता चलता है कि ज्यादातर लोग स्थानिक लोग ही थे और बाकी दानदाताओं में ज्यादातर उज्जैन विदिशा आदि से संबंधित थे। शिलालेखों में मौर्य, शूंग, सातवाहन, कुषाण और गुप्तकालीन शिलालेख भी हैं। मौर्य और गुप्त काल में सांची व्यापारिक मार्ग में स्थित होने के कारण बहुत महत्वपूर्ण था। सांची अपने आंचल में आज भी बहुत सारा इतिहास समेटे हुए हैं। सांची को काकनाय, बेदिस गिरी, चेत्या गिरी, आदि नामों से भी जाना जाता है। यह एक पहाड़ी पर कॉम्प्लेक्स है जहां चैत्य , विहार, स्तूप, और भारत के इतिहास के प्रारंभिक मंदिरों को देखा जा सकता है। स्तूप क्रमांक 1 से कुछ दूरी पर मंदिर क्रमांक 40 है। इस मंदिर का केवल आधार ही शेष ही रह गया है इस जगह पर एक पिलर ही दिखाई देता है। यह मंदिर आग से जलने के कारण नष्ट हो गया। स्तूप क्रमांक एक के उत्तर दिशा में स्तूप क्रमांक 2 है जो आकार में बहुत छोटा है। यहां के गाइड बताते है कि स्तूप क्रमांक 2 से ही गौतम बुद्ध के दो शिष्यों सारीपुत्र तिस्य और महामोदगल्यायन की अस्थियां मिली थी। इन अस्थियों को अब महाबोधि सोसाइटी के चैत्य में रखा गया है। प्रत्येक वैशाख पूर्णिमा को इन अस्थियों को दर्शन के लिए रखा जाता है ।
Chetiyagiri Vihara and the Sacred Relics
The bone relics (asthi avashesh) of Buddhist Masters along with the reliquaries, obtained by Maisey and Cunningham were divided and taken by them to England as personal trophies.Maisey's family sold the objects to Victoria and Albert Museum where they stayed for a long time. The Buddhists in England, Sri Lanka and India, led by the Mahabodhi Society demanded that they be returned. Some of the relics of Sariputta and Moggallana were sent back to Sri Lanka, where they were publicly displayed in 1947. It was such a grand event where the entire population of Sri Lanka came to visit them. However, they were later returned to India. But a new temple Chetiyagiri Vihara was constructed to house the relics, in 1952. In a nationalistic sense, this marked the formal reestablishment of the Buddhist tradition in India.
|
sanchi mahabodhi chaitya |
|
sanchi mahabodhi chaitya |
श्रीलंका के बौद्ध काल के महावामसा के एक संस्मरण के अनुसार सम्राट अशोक सांची से पहले से जुड़े हुए थे जब वह उज्जैन प्रांत के गवर्नर थे। सांची के स्थानीय साहूकार की बेटी से उन्होंने शादी कर ली थी बाद में अशोक और देवी को पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा की प्राप्ति हुई। सम्राट अशोक ने अपने जीवन काल में कई युद्ध किए। लेकिन कलिंग युद्ध में हुए विनाश और नरसंहार के बाद अशोक का ह्रदय परिवर्तन हो गया और उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया। बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा। सरलता ,सामान्य सौंदर्य की भावना ही सांची की मूर्ति कला की शक्ति है। बुद्ध स्तूप सांची में प्रारंभ में गौतम बुद्ध की मूर्तियां नहीं पाई जाती क्योंकि उस समय तक बुद्ध को देवता के रूप में मूर्ति बनाकर नहीं पूजा जाता था।
स्तूप का अर्थ :
स्तूप शब्द संस्कृत व पालि से निकला माना जाता है जिसका अर्थ होता है ढेर। प्रारंभ में केंद्रीय भाग में तथागत के अवशेष रखकर उसके ऊपर मिट्टी डालकर उनको गोलाकार आकार दिया गया। बाहर से ईट व पत्थरों की ऐसी चिनाई की गई ताकि खुले में भी इन स्तूपों पर मौसम का कोई प्रभाव नहीं पड़े। स्तूपों में कोई गर्भगृह नहीं होता और ना ही कोई प्रवेश द्वार होता है। सांची के स्तूप के समीप थोड़ा नीचे की तरफ एक बौद्ध मठ के अवशेष है जहां बौद्ध भिक्षुओं के आवास हुआ करते थे। पास में पत्थर का विशाल कटोरा है जिसमें बौद्ध भिक्षुओं में अन्न बाटा जाता था।
It is now a marvellous example of the carefully preserved archaeological site by the Archeological Survey of India. The place of Sanchi Stupa in Indian history and culture can be gauged from the fact that Reserve Bank of India introduced new 200 indian rupees note with sanchi in 2017 .
Today, around fifty monuments remain on the hill of Sanchi, including three main stupas and several temples. The monuments have been listed among other famous monuments in the UNESCO World Heritage Sites since 1989.
साँची को मात्र एक ब्लॉग में पोस्ट करना लगभग असम्भ है। प्रयास करूँगा कि साँची पर पार्ट 2 भी लिखूं। अभी बहुत कुछ लिखना बाकि रह गया है। कई मंदिर और विहार भी अछूते रह गए है। अगले पार्ट में सभी को शामिल करने का पूरा प्रयास करूँगा. यदि कोई सुझाव और कमेंट देना चाहे तो बिना झिझक आप लिख सकते है।
साँची तक पहुंचे कैसे :
साँची भोपाल से लगभग 50 km की दूरी पर स्तिथ है। नजदीकी एयरपोर्ट भोपाल है। ट्रेन से पहुँचने के लिए भोपाल 50 km , विदिशा 10 km स्तिथ है। साँची भी रेल स्टेशन है पर यहाँ बड़ी ट्रेन का स्टॉपेज नहीं है। देश के किसी भी हिस्से से यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है। स्तूप तक पहुँचने से पहले नीचे ही टिकट काउंटर बना हुआ है जहाँ से टिकट लेकर आसानी से पहुंचा जा सकता है।
चित्र दीर्घा :
22 Comments
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सर जी🙏🙏
ReplyDeleteThanks manoj
DeleteGreat one.... 👌👌👌👌
ReplyDeleteThanks 👍
Deleteमनोहारी छाया चित्रों के माध्यम से विश्व विरासत के संदर्भ में बेहद सटीक जानकारी, अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इतिहासिक चीजो के प्रति आपकी रुचि ओर सरल शब्दों में विस्तृत की योग्यता अद्भुत हैं।
ReplyDeleteThank you so much 👍
Deleteऐतिहासिक धरोहर जो हमें गौरांवित् प्रतीत कराती है।
ReplyDeleteThanks Abhishek 👍
Deleteबहुत ही खूबसूरत चित्रण और वर्णन,इसके लिए बहुत बहुत बधाई आपको सर ।।
ReplyDeleteBahut bahut dhanyawad 😊
Deleteइतनी सटीक एवं अधिक जानकारी के लिए आपको बहुत बहुत बधाई सर।
ReplyDeleteअपने द्वारा किया हुआ कार्य अत्यंत सराहनीय है ।
Thank you so much 👍👍
Deletethis is a very informative blog
ReplyDeleteThank you so much 👍
DeleteJai ho
ReplyDeleteDhanyawad 😊
DeleteGreat very beautiful
ReplyDeleteThank you so much 👍
Delete🙏👍
ReplyDeleteThanks 👍
DeleteSabhi ko bahut bahut dhanyawad 😊
ReplyDelete