भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण और बनाए गए आठ स्तूप :
Mahaparinirvana of Lord Buddha and history of eight Stupas :
साथियों आज का ब्लॉग पिछले कुछ blogs से हटकर होने वाला है। अभी तक क्या होता था, मैं किसी ऐतिहासिक स्थान पर जाता था, वहां के फोटो लेता था, उसका इतिहास समझता था और उसको फिर अपने शब्दों में ब्लॉग के रूप में प्रस्तुत करता था। सांची के स्तूप और इसके आसपास के चार अन्य स्तूपों को कवर करते समय जिज्ञासा हुई कि जो सांची में भगवान बुद्ध का स्तूप बना है और अन्य स्थानों पर स्तूप बने हैं, वह स्तूप क्यों बनाए गए किसके लिए बनाए गए और इसका क्या रहस्य है।
आज के ब्लॉग में जो विषय ले रहा हूं, इसके विषय में आमजन में बहुत कम जानकारी है। हम लोग साँची या अन्य स्तूपों पर जाते हैं वहां फोटो खींचते हैं, घूमते हैं और वापस आ जाते हैं। पर यह स्तूपों का उद्देश्य क्या था और यह स्तूप पहली बार कब बने,यह जानने की जिज्ञासा कम ही होती है। तो आज इस विषय को मैं अपने शब्दों के माध्यम से इस ब्लॉग में प्रस्तुत कर रहा हूं।
आज के ब्लॉग का विषय है भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण और उसके बाद बनाए गए आठ स्तूप :
कहा जाता है कि जब महामुनि मरकट सरोवर के तट पर वृक्ष के नीचे बैठे थे तभी उनके पास मार आया और उनसे कहा कि हे मुनि , निरंजन नदी के तट पर जब आपने बुद्धत्व प्राप्त किया था तब मैंने आपसे कहा था कि आप निर्वाण प्राप्त कर लीजिए। उस समय आपने कहा था जब तक मैं पीड़ित और पापियों का उद्धार नहीं कर लेता ,तब तक मैं निर्वाण की कामना नहीं करूंगा। अतः अब आप निर्वाण प्राप्त कर लीजिए। मार की बात सुनकर भगवान बुद्ध ने कहा मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूं , तुम चिंता मत करो। आज से तीसरे मास मैं निर्वाण प्राप्त करूंगा। भगवान बुद्ध के वचन सुनकर मार मुनि को प्रणाम कर वहां से चला गया।
इसके बाद भगवान बुद्ध ने आनंद से कहा अब मैं केवल तीन मास और इस पृथ्वी पर रहूंगा फिर चिरंतन निर्वाण प्राप्त कर लूंगा। इसके बाद लिच्छवियों पर अनुग्रह कर उन्हें उपदेश देकर भगवान बुद्ध वैशाली नगर से उत्तर दिशा की ओर चल दिए। भोगवती नगरी में कुछ समय रहने के बाद भगवान बुद्ध ने अपने अनुयायियों को उपदेश दिए और उसके बाद भगवान बुद्ध ने पापापुर के लिए प्रस्थान किया। पापापुर पहुंचने पर मल्लों ने उनका समारोह पूर्वक स्वागत किया। वहां उन्होंने अपने भक्त चुंद के घर अंतिम भोजन किया। अपने शिष्य मंडली के साथ भोजन कर लेने के बाद उन्होंने चुंद को उपदेश दिया और फिर कुशीनगर के लिए प्रस्थान किया।
Lord Buddha at Sanchi |
इसके बाद भगवान बुद्ध ने इरावती नदी को पार किया। नगर के एक सुंदर उपवन में एक सरोवर के तट पर कुछ समय विश्राम किया। तदुपरांत उन्होंने हिरण्यवती नदी में स्नान किया और आनंद को आदेश दिया है कि आनंद इन दोनों शाल वृक्षों के बीच मेरे शयन के लिए स्थान तैयार करो। हे महाभाग आज रात्रि के उत्तर भाग में तथागत निर्माण प्राप्त करेंगे। तदुपरांत भगवान बुद्ध ने एक हाथ का तकिया बनाकर एक पैर पर दूसरा पैर रखकर अपने शिष्यों की ओर उन्मुक्त होकर दाईं करवट लेट गये।तदुपरांत भगवान बुद्ध ने आनंद से कहा तुम मल्लों को मेरे निर्वाण की सूचना दे दो। आदेश अनुसार आनंद ने जाकर मल्लों को सूचित किया कि तथागत अब अंतिम शैया पर है। आधी रात बीतने पर जब चांदनी के प्रकाश का विस्तार हुआ सारा वन प्रदेश पूरी तरह शांत हो गया, तब भगवान बुद्ध ने वहां उपस्थित शिष्यों को बुलाया और अंतिम उपदेश दिया।
इसके बाद भगवान बुद्ध ने प्रथम ध्यान में प्रवेश किया, फिर दूसरे ध्यान में और इस तरह क्रमशः ध्यान से अनेकों स्तरों को पार कर पुनः चतुर्थ ध्यान में आए और सदा के लिए शांत हो गए। इस प्रकार 80 वर्ष की आयु में 483 ईसा पूर्व में पूर्णिमा के दिन कुशीनगर में महात्मा बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ।
साँची पैनल : सम्राट अशोक रामग्राम स्तूप खोलने के लिए जाते है पर खोल नहीं पाने के बाद प्रणाम कर वापस आ जाते है का दृश्य चित्रण |
महापरिनिर्वाण के बाद : आठ स्तूपों की कहानी
भगवान बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के बाद सारा संसार ऐसा लगने लगा जैसे बिना चंद्रमा के आकाश, पहले से मुरझाए कमल का सरोवर अथवा धन के अभाव में निष्फल विद्या। तदुपरांत मल्लों ने महामुनि के शव को स्वर्णमय सुंदर शिविका में स्थापित किया। दीपक जलाकर मल्लों ने चिता में आग दी, परंतु बार-बार प्रयास करने पर चिता में आग नहीं लगी क्योंकि भगवान बुद्ध का प्रिय शिष्य कश्यप अभी मार्ग में ही था, जैसे ही कश्यप दौड़ते हुए वहां आए और अपने गुरु को दंडवत प्रणाम किया, चिता में स्वतः ही आग लग गई। चिता के शांत हो जाने पर मल्लों ने भगवान बुद्ध की अस्थियों को शुद्ध जल से धोया और उन्हें स्वर्ण कलश में रख कर और अपने नगर के मध्य ले गए। बाद में मल्लों ने अस्थि कलश के लिए अत्यंत सुंदर पूजा भवन का निर्माण करवाया और उसमें अस्थि कलश स्थापित किया। कुछ समय तक मल्लों ने भगवान बुद्ध के अस्थि कलश की विधिवत पूजा अर्चना की।
एक दिन सात पड़ोसी राज्यों से दूत आए और उन्होंने भगवान बुद्ध की अस्थियों की मांग की परंतु भगवान बुद्ध की अस्थियों के लिए मन में अत्यंत श्रद्धा होने के कारण मल्लों ने भगवान बुद्ध की अस्थियां देने से मना कर दिया और लड़ाई की तैयारी होने लगी। दूतों की बात सुनते राजा क्रोधित हुए और लड़ाई की तैयारी होने लगी।
पड़ोसी राज्यों की सेनाओ ने कुशीनगर को चारों ओर से घर लिया। इस बीच एक ब्राह्मण द्रोण ने सभी राजाओं के बीच मध्यस्थता की और मल्लों को समझाया कि भगवान बुद्ध जैसे आपके गुरु है, वैसे ही सबके गुरु है। इसलिए यह राजा भी शाक्य मुनि की अस्थियों की पूजा करना चाहते हैं। द्रोण की बातें सुनकर मल्लों का क्रोध शांत हुआ और विवाद का अंत हुआ। सब ने मिलकर भगवान बुद्ध की मंगलमय धातुओं को 8 भागों में बांटा। एक-एक भाग प्रत्येक राजा को दिया गया और एक भाग स्वयं मल्लों ने अपने पास रख लिया। भगवान बुद्ध की धातुओं को लेकर सातों राजा अपने-अपने राज्यों को लौट गए। उन्होंने अपनी अपनी राजधानियों में इन अस्थियों पर स्तूप बनवाये और उनकी पूजा की। द्रोण ने भी अपने देश में स्तूप बनवाने के लिए वह घट ले लिए जिसमें पहले सभी अस्थियां रखी थी। पिसल जाति के बुद्ध भक्तों ने भगवान बुद्ध के शरीर की राख ली। साहित्य में यह भी बताया गया है पिप्लीवन के मोरिय ने यह राख ली थी।
The Bulis of Allakappa received a portion of the Buddha's relics following the war over the Buddha's Relics against the Sakyas. sanchi (1st century BCE/CE). |
अजातशत्रु मगध का राजा, वैशाली के लिच्छिवि , कपिलवस्तु के शाक्य , अलकप्पा के बुलिस , रामग्राम के कोलिय ,वेठद्वीप के ब्राम्हण ,पावस के मल्ल और कुशीनगर के मल्ल। बुद्ध के अवशेष राजगृह ,वैशाली ,कपिलवस्तु ,अल्लकप्पा ,रामग्राम ,पावा ,कुशीनगर और वेथापिधा में आठ स्तूपों में रखे गए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि पिपरहवा स्तूप सबसे पहले निर्मित स्तूपों में से एक था। और कपिलवस्तु से इसकी पहिचान स्थापित करता है। वर्ष 1898 में इस स्तूप से एक मंजूषा की खोज की गयी थी।
इस प्रकार भगवान बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद आठ स्तूपों का निर्माण हुआ जिनमें भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी हुई थी। द्रोण के घट वाला नवा स्तूप बना और दसवा स्तूप वह बना जिसमें भगवान बुद्ध के शरीर की राख रखी गयी थी। स्तूपों के निर्माण के बाद राजा, सामंत और सभी आम जनता इनकी पूजा करने लगे। स्तूपों पर अखंड ज्योति जलती रहती थी और दिन रात घंटे बजते रहते थे। अशोकावदान के अनुसार मौर्य सम्राट राजा अशोक ने इनमे से सात स्तूपों को खोला और अपने साम्राज्य में 84 हजार स्तूप बनवाएं। स्तूपों के भी कई प्रकार होते है। उस विषय पर भी एक ब्लॉग लिखूंगा।
सम्राट अशोक द्वारा सात स्तूप खोल लिए गए केवल रामग्राम का स्तूप वह नहीं खोल पाया था। इसका विवरण साँची के पैनल पर भी दर्शाया गया है। 249 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक रामग्राम स्तूप को खोलने और बुद्ध के अवशेष निकालने यहाँ आये पर यहाँ स्तूप की रक्षा नागों द्वारा की जा रही थी जिस कारण वह इसे बिना खोले वापस चले गए। अतः यह माना जाता है कि इस स्तूप में अभी भी भगवान बुद्ध के अवशेष सुरक्षित है।
स्तूप एक गोल टीले के आकार की संरचना है जिसका प्रयोग पवित्र बौद्ध अवशेषों को रखने के लिए किया जाता है। माना जाता है कभी यह बौद्ध प्रार्थना स्थल होते थे।इनमें शारीरिक स्तूप में गौतम बुद्ध और अन्य आध्यात्मिक विभूतियों के अवशेषों को सुरक्षित रखा गया है. जैसे सांची स्तूप. परिभोगिका स्तूप, बुद्ध व उनके अनुयायियों की वस्तुओं पर बनाए गए हैं. उद्देशिका (स्मारक) स्तूप गौतम बुद्ध के जीवन काल की घटनाओं से जुड़ी जगहों पर बनाये गए
14 Comments
ReplyDeleteआज
आज आपके ब्लॉग से बौद्ध स्तूपो महत्व समझ आया शानदार वर्णन 👍
Important knowledge about Lorde Buddha and stups🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत अच्छा ब्लॉग था sirji
ReplyDeleteSpecial blog👍👍👍 unique knowledge, thanks sir👌👌🙏🙏
ReplyDeletePhotographs are making it more engaging ....
ReplyDeleteBahut sundar sir
ReplyDeleteबहुत ही अद्भुत
ReplyDeleteNice sir
ReplyDeleteVery nice sir
ReplyDeleteआप का ब्लाग पूरा बहुत ही गूढ़ जानकारी मिली बहुत अच्छा लगा Thanks sir
ReplyDeleteBahut hi shaandaar knowledge full information....
ReplyDeleteSir very deep study You have done and delivered to us.thanks ,SUNIL Chandrikapure
ReplyDeleteशानदार एवम उपयोगी जानकारी के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteआपके ब्लॉग को पड़ने के बाद काफी जानकारी प्राप्त हुई तथा अब अपने आस पास स्थित ऐतिहासिक स्थलों की सांस्कृतिक विरासत को जानने की उत्सुकता भी है।
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